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Saturday, July 7, 2012

विषय जाइए भूल, यही कह गए सयाने


महिला ब्लागर को अपना फ़ोटू व नाम देना पसंद नहीं है। इस पोस्ट में उनका नाम था। इसे किसी ब्लाग वाले ने छाप दिया तो उन महिला ब्लागर ने कहा कि हमारा फ़ोटू निकालो। उन ब्लागर साहब ने तो निकाला नहीं पर हमने निकाल दिया।
देखो फ़ोटू निकालना कितना आसान है ?
पर कोई निकालना चाहे तब न .
बेकार भूसे में लठ्ठ बजाने से क्या फ़ायदा ?
लोग बाग कह भी रहे थे कि नई पोस्ट लाओ नई पोस्ट लाओ।
लो भई थामो नई पोस्ट !!!

एक धर्म की ख़ास, करे नारी पर रचना

सचिवों ने की गड़बड़ी, खुश कर दित्ता बास ।
ऐसी-तैसी कर गये, एक  धर्म की  ख़ास ।

एक  धर्म की  ख़ास, करे नारी पर रचना ।
माफ़ी लेता माँग,  मगर रचना से बचना |


है सच्चा इंसान, अगर गलती वह माने   |
विषय जाइए भूल, यही कह गए सयाने ||

Tuesday, March 15, 2011

रचना का अलबेला अरमान

(स्पेशल अपील - बुरा न मानो होली है वाले जज़्बात लेकर मेरी यह रचना पढ़ी जाए, तभी आप इसका लुत्फ़ ले सकेंगे।)

             ‘चल रचना, तुझे अलबेला जी बुला रहे हैं।‘ -मैंने बुक शेल्फ़ में टेक लगाए बैठी एक रचना से कहा।
             ‘मेरी रचना‘ नाम से यह किताब पिछली सदी में, इंग्लिश पीरिएड में छपी थी। इसकी भूमिका और तारीफ़ में चार अंग्रेज़ों ने शुरू के चार पेज बलात्कारियों के मुंह की तरह काले कर रखे थे। पुरानी होने के बावजूद यह खुद को काफ़ी मेनटेन रखती थी। लाल कवर में सजती भी ख़ूब थी। इसका रख-रखाव, भाषा और प्रेज़ेन्टेशन सभी कुछ दिलकश था। उसकी ख़ूबियां देखकर अलबेला जी को लुत्फ़ आ जाएगा और वे मुझे ईनाम दे ही डालेंगे, यही सोचकर मैंने रचना का चुनाव किया था। दरअस्ल यह एक इच्छाधारी किताब है जो कभी एक भरपूर औरत हुआ करती थी और न जाने किसकी बद्दुआ से वह अब एक किताब बनकर रह गई थी। मेरी अलमारी तक वह कैसे पहुंची ? यह एक लंबी कहानी है, किसी दिन आपको वह भी सुनाई जायेगी।
‘वह बुड्ढा मुझे क्यों बुला रहा है ? क्या करेगा वह मेरा ?‘-रचना ने अपनी आदत के मुताबिक़ ऐतराज़ से ही बात शुरू की।
‘अलबेला जी बुड्ढे हैं, तुझे कैसे पता ?‘-मैंने हैरत से पूछा।
‘मुझे ही क्या, सारी दुनिया को पता है, शेख़ जी।‘ -उसने जवाब दिया।
‘दुनिया को छोड़, तू अपनी बता। तुझे उनके बुढ़ापे का तजर्बा कैसे हुआ ?‘ -अपनी चहेती और ईनाम देने वाली हस्ती की बुराई मुझसे बर्दाश्त न हुई।
‘अनुभव खुद हो जाएगा, बस उसका थोबड़ा एक बार देख ले कोई।‘ -उसने अपनी गर्दन झटकते हुए कहा।
‘अरे रचना, तू भी न, बड़ी नादान है। यहां तो बूढ़ी लुगाईयां अक्सर ही अपने प्रोफ़ाइल में जवानी का फ़ोटो लगाए घूमती हैं।‘-मैंने सफ़ाई दी।
‘वे अपनी जवानी का फ़ोटो लगाती हैं न, अपने बुढ़ापे का भला कौन लगाएगा ?‘-उसने फिर ऐतराज़ किया।
‘एक हास्य कवि कुछ भी कर सकता है, आजकल तो वैसे भी एनिमेशन का ज़माना है। शाहनवाज़ ने तो ओबामा को देसी औरत का रूप देकर सिद्ध भी कर दिया है।‘-मैंने भी दलील दी।
‘नहीं, वह बुड्ढा ही है।‘-उसने फिर ज़िद की। वह रचना ही क्या जो अपनी ज़िद छोड़ दे।
‘दलील है न सबूत, ऐसे ही मत कहो किसी को कुछ भी।‘ -मैंने चेतावनी दी।
‘दलील है, देखिए, वह शाइनी और शक्ति कपूर की दुनिया में रहता है।‘-उसने कहा।
‘तो...‘-मैं चकराकर रह गया।
‘उनकी दुनिया में रहकर भी वह बलात्कार तक नहीं कर पाया आज तक, आखि़र क्यों? , केवल इसीलिए न कि वह सचमुच में ही बुड्ढा है।‘ -उसे लगा कि उसने साबित कर दिया, वह मुस्कुराई।
‘नहीं, नहीं, यह भी तो हो सकता है कि उन्होंने कर ही डाला हो।‘-अब मैंने एक चाल सोच ली थी और वह उसमें फंसने वाली थी।
‘नहीं किया उसने जीवन में एक बार भी।‘-उसने यक़ीन से कहा।
‘तुझे कैसे पता कि उन्होंने कभी बलात्कार नहीं किया ?, तूने क्या उनकी बेल्ट में माइक्रो कैमरे फ़िट कर रखे हैं।-मैंने थोड़ा और रंग चढ़ाया।
‘अभी किसी ब्लॉगर ने उसपर बलात्कार का आरोप लगा दिया था तो वह राशन पानी लेकर दहाड़ रहा था। उसने कुछ किया कराया होता तो उसके बीवी बच्चों को तो पता ही होता, जैसे कि शाइनी की पत्नी को सारा पता है।‘-उसने मेरी बात अपनी आदत के मुताबिक़ काट डाली।
‘इससे तो उनकी शराफ़त का पता चलता है न कि बुढ़ापे का।‘- मैंने आख़िर उसे उसी के जाल में फंसा लिया।
‘शरीफ़ तो वह हो नहीं सकता। इसी के पास बैठकर एक बैंड बजाने वाला दादा कोंडके बन गया, पता है आपको ?‘-उसने अपने ऐतराज़ को और ज़्यादा पैना कर दिया।
‘अरे, वह तो पैदा ही कोंडके बनकर हुआ था। अब कोई अपनी मर्ज़ी से पास चला आए तो किसी को रोका थोड़े ही जाता है। मैडम यह दुनिया है, कोई ब्लॉग नहीं कि मॉडरेशन लगाया जा सके।‘-मैंने भी भन्नाकर कहा।
‘उसके ब्लॉग को देख लो, उसकी कविताओं को देख लो। सब की सब द्विअर्थी और टुच्ची हैं।‘-वह किसी तौर भी अलबेला जी को शरीफ़ आदमी मानने के लिए तैयार न थी।
‘उसके पीछे एक राज़ है।‘-जैसे मां अपने बच्चे की हर मुम्किन सफ़ाई देती है, ठीक उसी तरह मैं भी अड़ा हुआ था, ईनाम के लालच में।
‘वह राज़ क्या है, मैं भी तो सुनूं ?‘-उसने व्यंग्य किया।
‘ब्लॉगिंग में ज़्यादातर लोग टुच्चे हैं, यह तो तू मानती है कि नहीं ?- मैंने सवाल से उसे फिर घेरा।
‘हां, मानती हूं।‘-पहली बार वह मुझसे सहमत हुई।
‘टुच्चे लोगों की पसंद भी टुच्ची ही होती है, यह भी तुझे मानना पड़ेगा।‘
‘मानती हूं‘
‘टुच्चे लोगों को पसंद आ जाए इसीलिए वे अपने ब्लॉग पर टुच्ची बातें लिखते हैं। जिनकी ऊंची पसंद है, वे कम हैं, उनके लिए भी वे लिखते हैं चाहे कम ही सही। उनकी सारी बातें टुच्चे लोगों के लिए नहीं होतीं। तूने देखा नहीं, कभी कभी मैं भी जाता हूं उनके ब्लॉग पर। क्या मैं भी टुच्चा हूं ? उनके ब्लॉग पर मेरा जाना ही उनकी शराफ़त और महानता का सबसे बड़ा सबूत है।‘-मैंने फ़ाइनल गोल कर डाला।
‘वे टुच्चे लोगों के लिए लिखते ही क्यों हैं ?‘-वह रचना ही क्या जो मान जाए।
‘वे समझदार हैं, इसलिए लिख रहे हैं।‘-मैंने अलबेला जी की तारीफ़ में एक गुण और बढ़ा दिया।
‘टुच्ची बातें लिखने में भला क्या समझदारी है ?‘-उसने फिर मेरी बात की दुम पर अपना पैर रख दिया।
‘देखो, इस देश में जितने भी लोगों ने ऊंची बातें कीं, उन सबका हाल ख़राब हुआ, लोगों ने उन्हें मार डाला। गांधी जी को तो महात्मा कहा जाता है, उन्होंने जैसे ही ऊंची बातें करना शुरू कीं, उन्हें तुरंत लंगोट बांधना पड़ गया और जान भी देनी पड़ी। जो उनसे भी बड़े महात्मा हुए हैं इस देश में, उनके पास लंगोट भी न था। अब बता एक समझदार आदमी इतिहास की भूलों को दोहराएगा कि उनसे बचेगा ?‘-वह रचना थी तो मैं भी रचनाकार था, मेरी बात सुनकर वह कुछ सोच में पड़ गई।
‘बस यही कारण है ?‘-शायद उसके इत्मीनान में अभी कुछ कसर थी।
‘वे टुच्चे लोगों से इंतक़ाम ले रहे हैं।‘-मैंने ऐसे ही बेपर की उड़ा दी जैसे कि टिप्पणियों में ब्लॉगर अक्सर  उड़ाया करते हैं।
‘इंतक़ाम, कैसा इंतक़ाम, किसका इंतक़ाम, यू मीन रिवेंज बट फ़ॉर व्हाट परपज़ ?‘-वह चकरा गई।
‘महापुरूषों और सुधारकों ने टुच्चे लोगों को बहुत सुधारना चाहा परंतु वे नहीं सुधरे बल्कि टुच्चे लोगों ने उल्टा उन्हें बहुत सताया। सारा इतिहास स्टडी करने के बाद अलबेला जी इस नतीजे पर पहुंचे कि ये टुच्चे लोग कभी नहीं सुधरेंगे, इसलिए इन्हें सुधारने की कोशिश ही बेकार है। उन्होंने टुच्चों को समाज से दूर करने के लिए ही टुच्ची बातें लिखना शुरू की हैं।‘-मैंने उसे सरगोशी के अंदाज़ में ऐसे बताया जैसे कि मैं कोई गहरा राज़ ज़ाहिर कर रहा होऊं।
‘टुच्ची बातों से समाज बिगड़ता है कि सुधरता है ?‘-वह सचमुच चकरा गई थी।
‘देखो, ऊंचे लोगों की पसंद ޺ऊंची होती है। इसलिए वे तो टुच्ची बातों पर ध्यान देते नहीं और उनका कुछ बिगड़ता भी नहीं। टुच्चे लोग ही टुच्ची बातों में रस लेते हैं और अलबेला जी के बिछाए जाल में फंस जाते हैं।‘-मेरी बातें उसकी समझ से बाहर हो रही थीं।
‘टुच्ची बातें और अश्लील बातें सुनना पाप है कि नहीं ?‘-मैंने उससे एक सवाल किया ताकि उसके लिए समझना आसान हो जाए।
‘हां‘-वह बोली।
‘बस, अलबेला जी टुच्चे लोगों से पाप कराते हैं ताकि वे मरकर नर्क में चले जाएं, समाज से दूर, ऐसी जगह कि जहां से वे लौट न सकें या फिर कम से कम जेल ही चले जाएं। उनकी कविता कोई कहीं सुनाएगा तो नगद पिटेगा और जेल अलग से जाएगा। इस तरह वे टुच्चे लोगों को ठिकाने लगाकर महापुरूषों पर हुए ज़ुल्म का इंतक़ाम ले रहे हैं।‘-मैंने पटाक्षेप किया।
‘आपको कैसे पता यह सब ?‘-उसे अब भी पूरा इत्मीनान नहीं था।
‘अपने ब्लॉग को वे अपने बच्चों को नहीं पढ़ने देते, क्योंकि उन्हें अपने बच्चों से कोई इंतेक़ाम थोड़े ही लेना है। यह सबसे बड़ा सबूत है उनकी नेक नीयती और शराफ़त का, उनके इरादे और उनके मिशन का। बस, उनकी हिमालय जैसी ऊंची शराफ़त पर शक करना छोड़ और अब चल मेरे साथ उनके पास।‘-मैंने हुक्म के लहजे में कहा।
‘वह मेरा क्या करेगा ?‘-उसने बड़ी अदा से पूछा।
‘करेंगे क्या, तुझे देखकर हंसेगे।‘
‘क्यों हसेंगे वह मुझे देखकर‘-वह चिढ़ सी गई।
‘बूढ़ी घोड़ी लाल लगाम देखकर तो हरेक हंसता है, वे भी हंस लेंगे।‘-मैंने बेपरवाही से कहा।
‘मैं बूढ़ी नहीं हूं।‘उसने कड़ुवा सा मुंह बनाकर जवाब थूक सा दिया।
‘फिटकरी के पानी से नहा-धोकर बूढ़ियां जवान नहीं हुआ करतीं।‘-मेरे सब्र का पैमाना भी भरता जा रहा था।
‘शेख़ साहब ! फिटकरी के दिन गए, अब सर्जरी का ज़माना है, हायमेनोप्लास्टी हो रही है आजकल, आप हैं कहां ?‘-रचना भी पूरी घाघ थी।
‘सर्जरी केवल शरीर की रिपेयर कर सकती है, मन की नहीं।‘-मैंने साफ़ कह डाला, बुरा माने तो मान जाए। मुझे यक़ीन हो चला था कि वह किसी भी सूरत मेरे साथ जाने के लिए आमादा नहीं है।
‘मन से तो औरत कभी बूढ़ी होती ही नहीं।‘-उसने इठलाते हुए कहा।
‘हमने तो तेरी जवानी कभी देखी नहीं।‘-मैंने बोर होते हुए कहा।
‘तो आज देख लीजिए न, शेख़ जी।‘-वह इठलाकर खुद को निसार कर देने के अंदाज़ में मेरी तरफ़ बढ़ी तो मैं बिदक कर पीछे हटा।
‘ला हौला वला क़ूव्वता । पास मत आ, दलील से बात कर, दूर से कर‘-मैंने अपनी ख़ैर मनाते हुए कहा।
‘तो याद कीजिए, मैंने ऐलान किया था कि मैं चार मर्दों के साथ सोना चाहती हूं।‘-उसने याद दिलाया।
‘अरे, मैं तो उसे बस एक दिल्लगी और मज़ाक़ समझ रहा था।‘-मैंने अचकचाते हुए याद किया। वाक़ई उसने ऐसा दावा करके एक ज़माने में सनसनी फैला दी थी।
‘हां, लोगों ने मज़ाक़ समझा, यही तो विडंबना है। लेकिन मैं अपने एनाउसंमेंट में सच्ची थी।‘-उसकी आंखों में अफ़सोस के साये तैरने लगे।
‘अगर सचमुच ही चार लोग चले आते तो तू उन्हें मैनेज कैसे करती ?‘-मैंने हैरत से अपने दीदे फाड़कर उससे पूछा।
‘देसी स्टाइल से तो नहीं हो सकता परंतु इंग्लिश स्टाइल से चारों मैनेज हो जाते हैं, कोई प्रॉब्लम नहीं होती।‘-उसके लहजे से उसका यक़ीन और तजर्बा,दोनों झलक रहे थे।
‘मेरा तो उद्घाटन ही चार अंग्रेज़ों ने किया था, आप आज भी देख सकते हैं, उनके लव लैटर मैंने बिल्कुल सामने ही सजा रखे हैं।‘-उसने सबूत के तौर पर उन चारों अंग्रेज़ों की याद दिलाई जिन्होंने उसकी तारीफ़ में पूरे चार पेज लिखे थे।
‘चार मर्दों को एक साथ ..., बड़े हुनर की बात है।‘-मैं अभी तक उसकी बातों पर यक़ीन करने की हालत में न आ पाया था।
‘बात हुनर की भी है और राज़ की भी।‘-तारीफ़ पाकर उसके चेहरे पर कुछ शादाबी सी आ गई थी।
मैं ख़ामोश रहा। कोई भी हुनरमंद पूछने से अपना राज़ नहीं बताता। हां, अगर थोड़ी सी बेनियाज़ी दिखाओ तो सब कुछ ख़ुद ही बता देता है। मैंने कुछ पल इंतज़ार किया तो उसने खुद ही कहना शुरू कर दिया।
‘मर्द और ब्लॉग की नेचर एक सी होती है। पोस्ट को भी हॉट करना पड़ता है और मर्द को भी। अगर एक समय में एक औरत चार-चार पोस्ट हॉट कर सकती है तो फिर चार मर्दों को हॉट करने में क्या प्रॉब्लम है ? वेस्ट में औरतें प्यार के बल पर जानवरों तक को अपने आगे पीछे नााचने पर मजबूर कर देती हैं, मर्दों की तो औक़ात ही क्या है ?‘-उसे अपनी बात पर यक़ीन था, सो मुझे भी करना पड़ा।
‘आज़ादी भी औरत को किस मक़ाम पर ले आई ?‘-मैं अपने दिल में मातम सा करने लगा।
‘ख़ैर, मैं मान गया कि तू तन-मन से जवान है, अब तो चल मेरे साथ अलबेला जी के पास।‘-मैंने एक आख़िरी सी कोशिश की।
‘वहां जाकर मैं क्या करूंगी शेख़ जी ?‘-उसने बड़ी शोख़ अदा से मुस्कुराकर देखते हुए मुझसे पूछा।
‘तुझे कुछ नहीं करना है भागवान, जो कुछ करेंगे अलबेला जी करेंगे।‘-मैंने उसकी मिन्नत सी करते हुए मिनमिनाकर कहा।
‘वह क्या ख़ाक करेगा ?, आज तक तो उससे कुछ हुआ नहीं, अब क्या ख़ाक कर लेगा ?‘
‘वे हंसेगे।‘-मैंने उसे याद दिलाया।
‘वह नहीं बल्कि मैं हंसंूगी उस पर।‘-उसने मेरी बात काटते हुए कहा।
‘तू भला क्यों हंसेगी उन पर ?‘-मैं फिर अचंभे में पड़ गया।
‘अरे मेरे भोले शेख़ जी ! जवानी सामने हो और उसे देखकर आदमी हंसना शुरू कर दे तो उससे बड़ा इडियट कौन होगा ?‘-उसके सवाल ने मुझे पहली बार लाजवाब कर दिया था। रचना के चर्चे दुनिया में आख़िर यूं ही तो नहीं होते। कुछ बात तो है न ।
‘हंसने से क्या मतलब ?, हां, मुस्कुराना चलेगा बिल्कुल तुम्हारी तरह।‘-वह आप से तुम पर आ चुकी थी। उसके इरादे नेक नहीं लग रहे थे। मैं सकपका गया। उसके होठों के साथ साथ उसकी आंखे भी मुस्कुराती हुई सी लग रही थीं और मेरा ईमान टाइटैनिक की तरह डोल रहा था। एक हसीन बुत मेरे दिल के दरवाज़े पर अपने नर्मो नाज़्ाुक हाथों से दस्तक जो दे रहा था। तभी मायके गई हुई शेख़चिल्ली की मां मेरे मन के ऐन मर्कज़ में दहाड़ी और मैंने उससे वादा किया कि मैं इस ज़ुलेख़ा के फ़ित्ने में हरगिज़ न फंसूगा।
‘खुद इतनी मुंहफट और जाने क्या-क्या फट है ? और ऐतराज़ करती है अलबेला जी की पोस्ट पर।‘-मैं कह तो नहीं सकता था लेकिन अपने मन में ख़याल आने से तो नहीं रोक सकता था।
‘आओ शेख़ जी, मेरे पास आओ।‘-अब वह किताब एक पूरी मदमदाती हुई हसीना की शक्ल में तब्दील हो चुकी थी, बिल्कुल किसी इच्छाधारी नागिन की तरह। वह मेरी तरफ़ बढ़ी तो मैंने उसे खुदा का डर दिखाने के बजाय ज़माने से डराया-‘देखो, शेख़चिल्ली आ जाएगा।‘
‘वह नहीं आएगा। वह तुम्हारे लिए अंडे लेने गया है।‘-उस कमबख्त को तो हर बात पता थी।
‘आई एम नॉट यौर कप ऑफ़ टी. देखो, तुम्हारी डोज़ हैं चार मर्द जबकि मैं चार नहीं लाचार हूं।‘-मैंने अपनी खाल बचाते हुए कहा।
‘डोंट वरी मैन, मैं तुममें से ही चार के बराबर निचोड़ लूंगी, आख़िर रोज़ाना दर्जन भर अंडे खाते हो तुम। अंडों का हलवा खाकर शेख़चिल्ली की मां को जो जलवे तुमने दिखाए हैं, वह सब मैंने देखे हैं‘-उसने शरारत से कहा ताकि मेरी झिझक तोड़ सके।
‘अयं, तुमने मेरे अंडों का जलवा देखा है ?‘-मैंने अपनी याददाश्त की डायरी के पन्ने उलटते हुए पूछा।
‘हां, तुम्हारे अंडों का भी जलवा देखा और जो अंडों से ऊपर है, उसका भी।‘-उसकी शरारतें और शोख़ियां बढ़ती ही जा रहीं थीं। अब यहां से निकल भागने में ही ख़ैरियत नज़र आ रही थी। मेरे इरादों को भांपकर अचानक ही वह तेज़ी से मेरी तरफ़ लपकी तो मैंने कमरे से बाहर छलांग लगा दी।
‘जल्ले जलाल तू, आई बला को टाल तू‘-मैं दुआ पढ़ता हुआ बदहवास सा बाहर निकला और पोर्च में खड़े हुए अपने गधे पर सवार होकर ऐसे भागा जैसे मेरे पीछे कोई चुड़ैल पड़ी हो।
कॉटेज के गेट से निकलते ही मेरे हाथ का फ़ुट भर का डंडा अंडे लेकर लौट रहे शेख़चिल्ली के सिर से टकराया। अंडों का क्रेट उसके सिर पर रखा था और पता नहीं वह किस ख़याल में डूबा हुआ था कि परेशानी के आलम में भागता हुआ अपना बाप तक उसे नज़र नहीं आया। टक्कर खाते ही अंडे उसके सिर से गिरे और रचना के अरमान की तरह फूट गए, सब के सब। वह तो अपने फूटे अंडों के पास बैठकर मातम करने लगा और मेरा गधा था कि मेरे रोकने से भी नहीं रूक रहा था। मेरे हाथ से डंडा भी उसके अंडों पर ही गिर चुका था। तभी उसके कानों में ऐसी आवाज़ पड़ी, जो उसकी जानी पहचानी थी। उस आवाज़ पर उसकी बिरादरी का हरेक मेम्बर फ़ौरन ऐसे रूकता है जैसे कि पोस्ट पढ़ने के लिए फ़ोलोअर रूका करते हैं।
‘यह अलबेला जी की आवाज़ थी। वे और उनके साथ खड़े ब्लॉगर शेख़चिल्ली से हुई मेरी टक्कर को देखकर बेतहाशा हंस रहे थे। हंसते हंसते उनकी आवाज़ ऐसी हो चली थी कि मेरा गधा उसका अनुवाद तक कर सकता था। शायद अलबेला जी अपने साथियों के साथ किसी लेक के किनारे लोटकर लौट रहे थे।
मैंने उन्हें पहचान लिया तो अपने गधे से तुरंत उतर पड़ा और उनके पास जाकर बोला-‘लाईये मेरा ईनाम।‘
लेकिन वे नॉन स्टॉप हंसे जा रहे थे। मैंने अपने ईनाम का तक़ाज़ा दोबारा फिर दोहराया तो हंसी के दरम्यान किसी तरह बड़ी मुश्किल से वे बोले-‘ईनाम ?, लेकिन रचना कहां है ?‘
...और पूछते ही वे तुरंत फिर बिलबिलाकर हंसने लगे।
‘मैं लिखा पढ़ी से ज़्यादा अमल में यक़ीन रखता हूं। मेरी भागदौड़ आपने देख ही ली और आपको हंसी भी आ गई, सो यह प्रतियोगिता तो मेरे नाम रही, अब जल्दी से ईनाम निकालिए।‘-मैंने हारी हुई बाज़ी को अपने अल्फ़ज़ की ताक़त से जीतने की कोशिश की। लेकिन मेरा मुतालबा वहां सुन ही कौन रहा था ?, सब तो पेट पकड़कर हो हो करके हंस रहे थे। तभी अचानक मेरे गधे ने हवा में अपना मुंह उठाया और कुछ सूंघना शुरू कर दिया। शायद किसी मादा के फ़ेरॉमौन्स उसकी नाक तक पहुंच रहे थे और फिर अचानक ही उसने एक ज़ोरदार दुलत्ती झाड़ी और वह पलटकर वह उसी तरफ़ दौड़ा, जिस तरफ़ से वह आया था।
‘अरे यह क्या ? यह तो सीधा अपने ही घर में घुसा जा रहा है ?‘-मैंने देखा और सोचा -‘लेकिन वहां तो इसकी कोई मादा नहीं है। फिर यह किसके पास जा रहा है ?-मेरे मन में जितनी तेज़ी से सवाल आया, उतनी ही तेज़ी से उसका जवाब भी आ गया और मैं बिना दुलत्ती झाड़े ही गधे के पीछे दौड़ लिया। रचना का अरमान मुझे किसी भी सूरत पूरे नहीं होने देना था।
मुझे दोबारा फिर से बेवक़ूफ़ों की तरह भागते देखकर अलबेला जी के और उनके फ़ोलोअर्स के क़हक़हे इतने बुलंद हुए कि वहां सड़क पर घूमती गधियां अब उनकी बात बिना किसी अनुवाद के भी समझ रहीं थीं और ऐसे शर्मा रही थीं जैसे कि रचना ज़िंदगी में उस समय भी न शर्माई हो जब चार अंग्रेज़ उसे एक साथ आज़ादी का सबक़ पढ़ा रहे थे।
बहरहाल हमें तो अपने गधे की इज़्ज़त भी अपनी ही तरह प्यारी थी, सो हम तो वहां से भाग आए और अलबेला जी के हाथों से ईनाम लेने का अरमान दिल में ऐसे ही अधूरा रह गया जैसे कि ‘रचना का अलबेला अरमान‘।
मैंने गधे को घर में घुसने से पहले ही जा लिया और उसकी गर्दन थाम ली लेकिन मादा की गंध ने उसे ऐसा मदमस्त कर रखा था कि उसने मेरे मालिक होने का भी लिहाज़ न किया और मुझे घसीटता हुआ वह दीवानों की तरह अपनी मंज़िल की जानिब बढ़ने लगा। गधा गेट में घुसा तो बेचारे शेख़चिल्ली के साबुत बचे आख़िरी दो अंडों पर भी उसका पैर पड़ गया। बस क्या था कि शेख़चिल्ली ने अंडों के ऊपर पड़ा मेरा फ़ुट भर का डंडा लेकर गधे का पिछवाड़े को ऐसे धुन दिया जैसे कि ऑर्केस्ट्रा में ड्रम। पिछवाड़े पर बला नाज़िल होते ही गधा घर के चारों तरफ़ बनी हुई गैलरी में राउंड लेने लगा। अब मैं तो उसके गले का हार बना हुआ था और शेख़चिल्ली चिल्लाते हुए उसकी ख़ातिर करता जा रहा था। अलबेला जी अपने दोस्तों के साथ पीछे पीछे चले आए थे और हमारा हाल देखकर बुरी तरह से हंसे जा रहे थे। वे जितना हंस रहे थे हमें उनसे ईनाम मिलने की उम्मीद उतनी ही ज़्यादा बढ़ती चली जा रही थी।
वे कुछ सांस लें तो आप भी उनसे मेरे लिए ईनाम की सिफ़ारिश कीजिएगा , और हां अपनी देसी जोरूओं को ज़रा नये ज़माने की आज़ादी से बचाकर रखना वर्ना उनमें ऐसी इच्छाएं पनपेंगी कि वे आपसे पूरी होंगी नहीं और गधा आपके पास है नहीं।
मेरी बात सच न हो तो ईनाम के बदले मुझे सज़ा दी जाए।
आप मुझे क्या देना चाहेंगे, सज़ा या ईनाम ?

Friday, January 28, 2011

‘अमन का पैग़ाम‘ लीजिए और ‘अमन का पैग़ाम‘ दीजिए, करने का सबसे ज़्यादा ज़रूरी काम आज यही है


दुनिया आज दुख का घर है और इंसान का घर भी यही है। दुनिया को दुख से भरने वाला भी कोई और नहीं है बल्कि खुद इंसान ही है। हर इंसान का की आदत और उसकी सोच दूसरों से थोड़ी बहुत अलग ज़रूर है। इंसान की यह एक ऐसी ख़ासियत है जिसकी वजह से दुनिया में तरक्क़ी के काम हुए और दुनिया में जितनी बर्बादियां फैलीं, वे सब भी इसी वजह से फैलीं। तरक्क़ी तब हुई जब सब अलग होने के बावजूद मिलकर हंसे-बोले और मिलकर काम किया और बर्बादियां तब फैलीं जब अलग होने को अपनी पहचान बना लिया गया, जब साथ हंसने-बोलने को भुला दिया गया। तब वे आपस में टकराये, कभी अपनी पहचान की हिफ़ाज़त के नाम पर और कभी अपनी सोच की बड़ाई के नाम पर। यह टकराव अब भी जारी है। टकराव की सोच ही आज इंसान को दुख दे रही है।
यह टकराव अभी और चलेगा, यह जल्दी ख़त्म होने वाला नहीं है। इसी टकराव के बीच इंसान को दुख पर फ़तह पानी है, यही चुनौती आज इंसान के सामने है।
दुनिया में आज दुख है। इंसान सोचता है कि यह दुख जाए तो मैं हंसूं। वह दुख जाता नहीं है कि एक दो नए दुख और जाते हैं उसकी ज़िंदगी में। वह सोचता है कि ये दुख जाएं तो मैं खुशी मनाऊं। जबकि करना इससे उल्टा है। हमें पहले हंसना होगा, तब दुख जाएगा। हमें खुशियों को महसूस पहले करना होगा, दुख का अहसास उसके बाद जाएगा।
ऐगनस रेपलियर ने कहा है किहम जिसके साथ हंस नहीं सकते, उसके साथ प्यार भी नहीं कर सकते।
ठीक ही कहा है रेपलियर ने लेकिन रेपलियर ने यह नहीं बताया कि जहां प्यार हो, वहां प्यार कैसे पैदा किया जाए ?
वह आपको मैं बताऊंगा।
आप जिन लोगों से प्यार नहीं करते, उनके साथ हंसिए-बोलिए, प्यार पैदा हो जाएगा।
यह एक अब्दी उसूल है जो सदा से चला रहा है। मैंने इसे सिर्फ़ दरयाफ़्त किया है, इसे बनाया नहीं है। आप और हम सदा से इस उसूल से काम लेते रहे हैं लेकिन जानते नहीं हैं।
रेपलियर के देश में लड़के-लड़कियां पहले साथ घूम-फिर कर देखते हैं कि क्या हम साथ हंस सकते हैं ?
अगर वे साथ में हंस लेते हैं तो फिर साथ में रहकर देखकर देखते हैं कि क्या हम साथ रह सकते हैं ?
फिर वे बच्चे पैदा करके देखते हैं कि क्या वे दोनों मिलकर बच्चों की ज़िम्मेदारी उठा सकते हैं ?
साथ मिलकर हंस लिए तो ठीक, वर्ना अलग। साथ रह लिए तो ठीक वर्ना अलग। साथ मिलकर बच्चे पाल लिए तो ठीक वर्ना अलग।
ऐसा क्यों करते हैं वे ?
वे ऐसा इसलिए करते हैं कि उनका परिवार और समाज सब कुछ बिखर चुका है। बेशक शादी-ब्याह में जुड़ते दो लोग हैं लेकिन जोड़ता पूरा समाज है जो कि बाद में भी जोड़े रखता है।
वे लोग यक़ीन खोए हुए लोग हैं।
हमारे यहां यक़ीन और विश्वास की अथाह दौलत है। हमारे यहां पहले ब्याह करते हैं लड़के लड़की का आपस में, फिर उन्हें साथ बैठने की इजाज़त मिलती है और फिर बुज़ुर्ग लोग कुछ ऐसी रस्में अंजाम देते हैं जो एक खेल की तरह लगती हैं। कभी किसी बर्तन में पानी भरकर दूल्हा-दुल्हन से कहा जाता है कि दोनों एक साथ पानी में हाथ डालकर अंगूठी ढूंढें और कभी ऐसा ही कोई दूसरा खेल कराया जाता है।
यह सब क्या है ?
क्या यह सब महज़ एक खेल है ?
इन्हें खेल समझने वाले इसके अस्ल राज़ से नावाक़िफ़ हैं। इसका राज़ यह है कि ब्याह से पहले तक लड़के और लड़की के लिए किसी ग़ैर को छूने की मनाही थी और यह मनाही उनके तहतुश्शऊर तक में, सबकांशिएस तक में बैठी हुई है। ऐसे में अगर एकदम दोनों की मुठभेड़ करा दी जाए तो शरीर की प्यास तो चाहे दोनों को जुड़ने पर मजबूर कर दे लेकिन उनके मन नहीं जुड़ पाएंगे। इसीलिए उनके मन से पहले धीरे-धीरे अजनबियत दूर की जाती है, उन्हें एक दूसरे के वजूद का आदी बनाया जाता है। उन्हें साथ हंसाया जाता है। साथ हंसेंगे तो प्यार खुद पैदा हो जाएगा।
औरत हो या मर्द, हंसते हुए दोनों ही बहुत प्यारे लगते हैं, इंसान की यह ख़ासियत है कि जो चीज़ उसकी नज़र को भा जाती है, उसका दिल उसके पीछे भागता है और जहां एक बार दिल किसी के पीछे लग गया तो समझो कि वह इंसान बस उसका हो चुका।
शादी-ब्याह की रस्मों के ज़रिए दोनों का दिल बहलाया भी जाता है और दोनों हंसाकर एक दूसरे के लिए उनमें प्यार भी पैदा किया जाता है। अगर वे इस राज़ को जान लेते तो वे सदा हंसते रहते, शादी के बाद भी, लेकिन उन्होंने तो उसे बस एक रस्म और एक खेल समझा। जिसे सिर्फ़ ब्याह के मौक़े पर खेला जाता है जबकि वह एक शुरूआत थी, एक सबक़ था, जिसे उन्हें दोहराते रहना था, जीवन भर।
आदमी को अपना बच्चा और पराई औरत दोनों ही अच्छे लगते हैंयह एक कहावत है।
क्या आपने कभी सोचा है कि आखि़र ये दोनों क्यों अच्छे लगते हैं ?
क्योंकि दोनों ही हंसते हैं।
अपनी बीवी इसीलिए अच्छी नहीं लगती। जब भी आप उसके पास जाएंगे, बस वह आपको काम ही बताएगी। कभी बच्चों की फ़ीस जमा कराने का तो कभी कोई मशीन ठीक कराने का। काम बहुत बताएगी लेकिन सारे काम करने की ताक़त जहां से मिलती है, बस वही काम नहीं करेगी, साथ बैठकर, पास बैठकर हंसेगी नहीं। हंसेगी नहीं तो वह अच्छी भी नहीं लगेगी।
आदमी हीरोईनों के फ़ोटो पर्स में रखता है, दीवार पर लगाता है, कम्प्यूटर और मोबाईल में डाउनलोड करता है। उनके पीछे दीवाना बना हुआ है। वहां क्या है ?
वहां भी एक मीठी सी मदभरी मुस्कान ही तो है जो कि हक़ीक़त नहीं है बल्कि सिर्फ़ एक छलावा है।
लड़कियां क्रीम-पाउडर में अपना पैसा खपा रही हैं, बेकार में ही। उनकी कशिश को बढ़ाने वाली चीज़ उनका रंग नहीं है बल्कि उनका हंसना और मुस्कुराना है।
एक मुस्कुराहट किसी भी लड़के को दीवाना बना सकती है। यह एक साबितशुदा हक़ीक़त है।
हमारी तहज़ीब पुरानी है। हमें अपनी तहज़ीब पर यक़ीन है। हमें पता है कि ब्याह को टिकाऊ कैसे बनाया जाता है ?
कैसे किसी के दिल में प्यार का बीज बोया जाता है ?
हम जानते हैं इसीलिए हमारे देश के ब्याह अक्सर टिकाऊ होते हैं।
आप चाहते हैं कि आपकी ज़िंदगी से दुख चला जाए तो उसके जाने का इंतज़ार मत कीजिए, बस हंसना सीख लीजिए। किसी इंसान से दुख पहुंच रहा है आपको तो उससे शिकायत मत कीजिए, बस उसके साथ बैठकर बातें कीजिए, उसके साथ हंसिए। उसका नज़रिया आपके बारे में बदल जाएगा, वह आपको दुख पहुंचाने की आदत छोड़ देगा।
अगर कोई चीज़ आपके पास हो लेकिन आप उसे कभी इस्तेमाल नहीं करते, उसपर ध्यान नहीं देते, उसका नाम तक आप कभी नहीं लेते तो फिर आपके लिए उसका होना और होना बराबर है।
आप इसी तरीक़े से अपने दुख को होने के बावजूद होनेमें बदल सकते हैं। आप कभी किसी की हमदर्दी पाने के लिए उसका इस्तेमाल मत कीजिए, महफ़िल में कोई उसकी चर्चा छेड़े तो उसकी बात काट दीजिए, खुद भी उस पर ध्यान मत दीजिए। उसे पूरी तरह नज़रअंदाज़ कर दीजिए। उसका होना आपके लिए होने के बराबर हो जाएगा और आप ऐसा कर सकते हैं फ़ौरन।
याद रखिए, जिस चीज़ को आप महसूस नहीं करते वह आपके लिए है भी नहीं।
सुख-दुख एक अहसास का नाम है। अहसास की वजह बाहर हो सकती है लेकिन अहसास अंदर ही होता है। दुश्मन आपके लिए दुख की वजह तो पैदा कर सकता है लेकिन अगर आप उसे महसूस करने के लिए तैयार नहीं हैं तो वह आपको हरगिज़ दुखी नहीं कर सकता। दुख को जीतने के लिए आपको अपने अहसास पर क़ाबू पाना सीखना होगा।
यह बिल्कुल पहला सबक़ है। इससे आगे वे सबक़ भी हैं जब इंसान के लिए हर दुख लज़्ज़त का ज़रिया बन जाता है। जो भी दुख उसकी ज़िंदगी में आता है, लज़्ज़्त साथ लाता है।
नहीं, वह आपको अभी नहीं बताया जाएगा। पहले तो आप बस इतना कर लीजिए जितना कि आपसे कहा जा चुका है।
आप दुख से निकल पाएंगे तभी किसी और को भी दुख से निकाल पाएंगे। जितना ज़्यादा आप दुख के अहसास से आज़ाद होते चले जाएंगे, आपकी ज़िंदगी में उतना ही ज़्यादा अमन आता चला जाएगा और तब आपने जिस तरीक़े से खुद अमन पाया है, वही तरीक़ा आप दुनिया को बताएंगे, तब आपकाअमन का पैग़ामएक ऐसी हक़ीक़त होगा, जिसे अपनाने के लिए हरेक तैयार होगा।
अमन यहां नक़द है, बस सच्चा तलबगार चाहिए।
कौन चाहता है अमन , सामने आए ?
आपकी चाहत पूरा होने का वक्त गया है।
जो तरीक़ा एक इंसान के लिए फ़ायदेमंद है, वही तरीक़ा पूरी क़ौम के लिए भी कारगर है।
आप बाज़ारों में देखिए, अलग अलग बिरादरियों के लोग कैसे मिलजुल कर कारोबार करते हैं।
उनका पास बैठना, साथ खड़े होना और मिलकर काम करना ही उनके अंदर की नफ़रतों को कमज़ोर करता रहता है, उनके अंदर मुहब्बत के फूल खिलाता है।
फ़ितरत को नफ़रत मंज़ूर ही नहीं है। नफ़रत को वह खुद मिटाती रहती है और नफ़रत करने वालों को भी। साथ रहना और प्यार करना इंसान की फ़ितरत है। इंसान साथ चाहता है, खुशी और प्यार चाहता है, अमन चाहता है और ये सभी बातें एक दूसरे में इस तरह पैवस्त हैं कि एक आएगी तो दूसरी भी चली आएगी।